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मानवता की जीत भाग-2

लाला पैसे के मामले में इतना सख्त था कि वह इसके लिए कुछ भी कर सकता था। लाला की पत्नी थोड़ा दयालु थी उसका हृदय बहुत ही कोमल था। वह बहुत ही सरल स्वभाव की थी। जब लाला दुकान पर नहीं होता था तो दुकान की देखभाल उसकी पत्नी ही करती थी। गांव का हर एक व्यक्ति यही चाहता था की लाला मर जाए और उसकी पत्नी दुकान संभाले क्योंकि वह सबसे प्रेम भाव से वार्तालाप करती थी। जब लाला की पत्नी दुकान पर होती तो पहलवान उसकी दुकान पर बार-बार आता था। पहलवान यूं ही लाला की दुकान पर नहीं आता था व,लाला की बेटी से प्रेम करता था। लाला की बेटी का नाम सुनैना था। सुनैना भी पहलवान से प्रेम करती थी। ये लोग छिप छिप कर गांव के पीछे तालाब पर मिलते थे। जब भी पहलवान को सुनैना से मिलना होता तो वह लाला की दुकान पर आता और इशारा कर देता सुनैना समझ जाती की आज मिलने जाना है। मानवता की जीत आज लाला वसूली के लिए बाहर गया हुआ है और दुकान पर उसकी पत्नी बैठी हुई है। तभी पहलवान उसकी दुकान पर पहुंच जाता है और लाला की पत्नी मालती से सामान देने के लिए बोलता है। जैसे ही मालती सामान लाने के लिए दुकान के अंदर जाती है पहलवान सुनैना को इशारे से

शुक्र है.........

                    शुक्र है बैठा है मेरे सामने, पर मुझे उस पर यकीन नहीं, सिर्फ घात ही तो लगाया है बस्ती में, शुक्र है उजाड़ा अब तक कोई गांव नहीं। अजब सन्नाटा है महफिल में शाम को, लगता है फिर कोई चला शमशान को, यूं तो वादा था चुभेंगे नहीं कंकड़ पैरों में, पर शुक्र है मैं चलता कभी नंगे पांव नहीं। नन्हीं आंखें देख रही हैं अपनी जननी को, शायद वह छोटा दाना देंगी मुझको खाने को, यूं तो तड़प कर मरते बहुतों को देखा भूख से, पर शुक्र है मैं बना अभी तक लाश नहीं। अब तो कत्लेआम हो रहा है सड़कों पर, जैसे जानवर कटते हैं बूचड़खानो पर, यूं तो कातिल बनते बहुतों को देखा जमाने में, पर शुक्र है अभी मेरे हाथों में हथियार नहीं। उठी है कलम तो घाव अंदर तक करेगी, चाल कितनी भी चल लो यह फिर भी ना रुकेगी, यूं तो काटे होंगे तुमने कितने शायरों के गर्दन, पर अभी तक पढ़ा पाला मुझसे नहीं।                              वीरेंद्र प्रताप वर्मा

मानवता की जीत भाग-1 ......

एक गांव में एक पहलवान रहता था। वह बहुत ही ईमानदार एवं कर्मठ था। उसके परिवार में केवल उसकी एक बूढ़ी मां रहती थी। पहलवान दंगल करके पैसे कमाता था। दंगल में जीते हुए पैसों से अपना भरण-पोषण करता था। उसका पड़ोसी सुरेश उसे देख कर बहुत जलता था । हमेशा उसे झुकाने की कोशिश करता था। सुरेश एक साहूकार था। उसके पास पैसों की कमी नहीं थी। सुरेश बहुत ही क्रूर और घमंडी था। पर मजबूरी की वजह से लोगों को उसके पास जाना पड़ता क्योंकि गांव में और कोई आवश्यक वस्तुओं की दुकान ना थी। सुरेश की दुकान पर गांव का लगभग प्रत्येक व्यक्ति कर्जदार था। सुरेश कर्जा वसूलने में बिल्कुल भी रहम नहीं दिखाता था। यदि गांव में किसी को कोई भी समस्या होती तो वह पहलवान के पास जाते थे क्योंकि पहलवान हर समस्या का कोई न कोई हल निकाल लेता परंतु जब बात पैसे की आती थी तो लोग सुरेश के पास जाते थे। पैसे के अलावा अन्य कामों के लिए लोग पहलवान के पास जाते थे इसीलिए सुरेश को जलन होती थी उसे लगता था की यह गांव मेरे बिना भूखो मर जाएगा। सुबह-सुबह सुरेश की दुकान पर रामू काका सामान लेने पहुंच गए- सुरेश बेटा 1 किलो चावल दे दो इस बार फसल बहुत अच

काले बादल छट जाएंगे ....

   तुम्हारी ख्वाहिशें तनिक धीरज धर मानुष, काले बादल छट जाएंगे। इतना ना अधीर बन, इतना ना गंभीर बन, समझ ना खुद को अकेला, वीर जैसा निर्भीक बन। सोचता था पिस चुका हूं, काम की भरमार में, वक्त मिले क्षण भर का तो,  बैठ सकूं परिवार में। सोचती थी मैं अकेले, भरतार मेरे परदेस हैं, होते जब वे साथ मेरे, मिट जाता हर क्लेश है। देखता था आसमान को, मानव कृत्य नजर आते थे, प्रदूषण से धरती रोती, देख कलेजा फट जाते थे। अब थम गई रफ्तार है, सूना सब संसार है, चाहता था जो तू ख्वाहिशों में, मिला वही वरदान है। घर में पंछी फिर गाएंगे, धरती गगन सब खिल जाएंगे, तनिक धीरज धर मानुष, काले बादल छठ जाएंगे।  

अब खुद ही बताओ तुम कैसी हो........

                                  मां की ममता किस्तों में कट रहा है दिन,  फिर क्यों निशब्द बैठी हो, जान सका ना तेरी महिमा, अब खुद ही बताओ तुम कैसी हो। क्या तुम मां कौशल्या जैसी, दुखी होकर भी मुस्कुराई थी, दूर रहकर अपने बेटे से, चौदह वर्ष बिताई थी। क्या तुम मां देवकी जैसी, कारावास में काल को हराई थी, दूर छोड़ अपने बेटे को, चाबुक से मार भी खाई थी। क्या तुम माता मंदोदरी जैसी, राक्षस कुल कि वह लुगाई थी, उलझ पड़ी अपने पति से, पुत्र वियोग में अकुलाई थी। क्या तुम मां तारामती जैसी, सत्यवादी की पत्नी कहलाई थी, कफन मिला ना पुत्र के खातिर, पति के आगे हाथ फैलाई थी। सुनकर तेरी करुण गाथा, तुम तो देवता जैसी हो, फिर भी हूं दुविधा में मां, अब खुद ही बताओ तुम कैसी हो। 2 Kindness of mother

दिल्ली हिंदू मुस्लिम हिंसा...

 There is a poem related to Delhi Hindu Muslim voilance,many people are injured in this voilance.poor people are mostly effected.                                  हिंसा यह क्या कर दिया तुमने, यह कैसी आफत आई किसी ने भड़काया था तुमको ,यह क्यों समझ ना आई। सियासी रंजिश में फंस गए, उनका काम आसान किया फूंक दिया अपना ही घर, और सोचा वह क्या काम किया। जला दिया उनकी भी ठेली, जिनका कोई कसूर नहीं धर्म जाति से क्या मतलब, उनको खाने को कौर नहीं भूखे उनके बच्चे हैं, क्या तुमको यह ज्ञात नहीं कहां से लाएंगे वे भोजन, जब कमाने की युक्ति नहीं। मार दिया उनको भी तुमने ,जो तुम्हारे रक्षक थे जान बचाने आए तुम्हारा, तुम समझे कि भक्षक थे क्या जवाब दोगे तुम उनको, जिसने अभिभावक खोया है ये दंगाइयों शर्म करो ,क्या तुम्हारा जमीर सोया है। बापू का यह देश है भारत ,जिसने अहिंसा थी अपनाई झुका दिया सर विश्व पटल पर, तुमको जरा भी शर्म ना आई। विनम्र भाव से आग्रह करना, यही भारत का अतीत रहा उठा लिया शस्त्र हाथों में, देख देव भयभीत रहा। बंद करो अब नादानी, बहुतों का खून बहा लिया कोई मतलब नहीं तुम्हें देश

कोरॉना का कहर..(covid-19)

यूं ही गिरी ना गाज हम पर, कुछ तो किया था हमने। भूल कर अपने कर्तव्यों को, चले थे मोक्ष को पाने , मार गले में छूरी उसके ,चले थे धन को हथियाने, मौत का तांडव जब शुरू किया तुमने, तो कौन अब आए बचाने यूं ही गिरी ना गाज हम पर..................................... मंदिर फूंके मस्जिद फूंके, गुरुद्वारे को जला डाला रेप किया चर्च में तुमने, मानवता को झुठला डाला, धर्म के नाम पर किया कमाई, अब कौन सहाय बने, यूं ही गिरी ना गाज हम पर...................................... काटा मारा पकाया उनको, जो बेचारे निर्दोष रहे थे, स्वतंत्र रूप से स्वच्छंद जीवन, अपने आलय में बिता रहे थे, छीन लिया आवास भी उनका, अब भी ना उनकी हाय लगे? यूं ही गिरी ना गाज हम पर....................................... भूल गए घर द्वार अपना, नाइट क्लब में रात बिताते थे, अधम शब्द का प्रयोग करके, बेटियों से बतलाते थे, हद तो तब हुई जब तुमने मां को भी ना बक्सा, दोस्तों के संग देकर गाली लगे माहौल को बनाने यूं ही गिरी ना गाज हम पर...................................... बंद रहो अब दीवारों में, परिस्थिति ने कुछ सिखलाई है, सब तुम्हा

स्वप्न सुहाना....

                                     स्वप्न सुहाना बांध वृषभ नदिया के तीरे, पैर पसार विचारन लागे, किस विधि बीती चैत महीना, गेहूं खेत पाकन लागे। होती यदि साथ संगिनी, काम सुगम वह कर देती, वट वृक्ष के नीचे होता मेरा आसन, काम सुगम वह कर देती। तर तन हो जाता पसीने से, आंचल से बेना कर देती, बिठा अपने झूलनी के नीचे, सूरज की अकड़ तोड़ देती। बैठ वृक्ष की अर्ध छाया में, अपने हाथों से भोजन करा देती, यदि लगा होता जूठन हाथों में, लट झटक के पीछे कर लेती। देख निर्जीव खेत का रक्षक, मन में यह सपने सजाए, घट पलट जाए घुंघट उल्टे, दर्शन से तृप्त मन हो जाए। दिन दूर नहीं अब वह पल मिलन का, चुपके से बतला देती, है भ्रमित पथ पर पथिक अकेला, भवसागर पार करा देती।                                          -  वीरेंद्र प्रताप वर्मा