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पिता का बच्चों के लिए प्रेम।father

पिता की पीठ की सवारी बचपन में पिता के पीठ पर जो सवारी करते थे वह किसी राजा के रथ की सवारी से कम नहीं था। वह पुराने दिन गुजर गए परंतु उनकी यादें हमारे जहन में अभी तक जिंदा है। वक्त गुजरता गया और यह सवारी वाली प्रथा खत्म होती चली गई ऐसा नहीं कि अब पिता के पास पीठ नहीं है और ऐसा नहीं है कि पिता अब घोड़ा बनना नहीं चाहता परंतु बेटे के पास अब इतना समय नहीं रहा कि वह मोबाइल फोन से बाहर निकल कर सवारी कर सकें। छोटी सी पैंट जो घुटनों तक होती है और आधी बाजू की टीशर्ट पहनकर मैं प्रतिदिन स्कूल जाता था। स्कूल जाते वक्त मेरे कपड़े चमकते रहते थे परंतु वापस आने पर धूल मिट्टी से नहाया हुआ होता था। अगर पिताजी तैयार होकर कहीं जाने वाले भी होते थे फिर भी धूल से लिपटे हुए मेरे शरीर की परवाह ना करते हुए मुझे अपनी गोद में उठा लेते थे। मैं तभी जिद करने लगता था मुझे सवारी करनी है। बिना किसी सवाल के बाबूजी घोड़ा बन जाते थे और मैं उनके पीठ पर बैठ जाता था और पूरे आंगन में चलने लगते थे। तबड़क तबड़क की आवाज करते हुए मैं जोर से चिल्लाने लगता था। जब मुझे सवारी का पूरा आनंद मिल जाता था तब मैं उनकी पीठ से नीचे उतरता और