सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

रोटी की आस में लेबल वाली पोस्ट दिखाई जा रही हैं

रोटी की आस में शहर चला

अपने जज्बे को नाकाम होते देख रहा हूं, पसीने की इज्जत बाजार बिकते देख रहा हूं, बिखरी पड़ी है बासी रोटियां आज सड़कों पर, ताजी रोटियां महलों में सिकते देख रहा हूं। भूख,बेबसी और लाचारी ले आई शहर की तरफ, वरना गांव तो अपना जन्नत का गुलिस्ता था, कौन जलना चाहता है शहर की सूखी तपिश में, आना ही पड़ा क्योंकि रेत से रिश्ता पुराना था। कमाने आया माया मायाजाल में फंस गए, चूसा मुझ गरीब का खून मालामाल हो गए, दो वक्त की रोटी ही तो मांगी थी जीने के लिए, पर शक्ल ऎसे बनाई जैसे कंगाल हो गए। चौखट पर बैठकर अभागी मां सोच रही होगी, गलती नहीं किसी की शायद किस्मत ही सो रही होगी, काश मैं रोक लेती जब वह जा रहा था शहर, अपनी अचूक पर सिसक-सिसक कर रो रही होंगी। रोटी की आस में व्याख्या:- उपरोक्त पंक्तियां मजदूरों की दशा का वर्णन करती हैं। काम की तलाश में बहुत सारे मजदूर गांव से शहर की तरफ पलायन करते हैं। वर्तमान समय में महाराष्ट्र औरंगाबाद में मजदूरों के साथ हुई घटना के आधार पर अपनी व्यथा का वर्णन किया है। जब मजदूर गांव से शहर की तरफ चलता है तो वह मन में तरह-तरह के सपने सजाते हुए चलता