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रोटी की आस में शहर चला

अपने जज्बे को नाकाम होते देख रहा हूं,
पसीने की इज्जत बाजार बिकते देख रहा हूं,
बिखरी पड़ी है बासी रोटियां आज सड़कों पर,
ताजी रोटियां महलों में सिकते देख रहा हूं।

भूख,बेबसी और लाचारी ले आई शहर की तरफ,
वरना गांव तो अपना जन्नत का गुलिस्ता था,
कौन जलना चाहता है शहर की सूखी तपिश में,
आना ही पड़ा क्योंकि रेत से रिश्ता पुराना था।

कमाने आया माया मायाजाल में फंस गए,
चूसा मुझ गरीब का खून मालामाल हो गए,
दो वक्त की रोटी ही तो मांगी थी जीने के लिए,
पर शक्ल ऎसे बनाई जैसे कंगाल हो गए।

चौखट पर बैठकर अभागी मां सोच रही होगी,
गलती नहीं किसी की शायद किस्मत ही सो रही होगी,
काश मैं रोक लेती जब वह जा रहा था शहर,
अपनी अचूक पर सिसक-सिसक कर रो रही होंगी।
रोटी की आस
रोटी की आस में


व्याख्या:-

उपरोक्त पंक्तियां मजदूरों की दशा का वर्णन करती हैं। काम की तलाश में बहुत सारे मजदूर गांव से शहर की तरफ पलायन करते हैं। वर्तमान समय में महाराष्ट्र औरंगाबाद में मजदूरों के साथ हुई घटना के आधार पर अपनी व्यथा का वर्णन किया है।

जब मजदूर गांव से शहर की तरफ चलता है तो वह मन में तरह-तरह के सपने सजाते हुए चलता है। एक जज्बे के साथ शहर में काम करता है। पर उनके मालिक उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते। औरंगाबाद की घटना में जो रोटियां वे कमाने शहर की तरफ आए थे वे रोटियां रेलवे की पटरी ऊपर बिखरी पड़ी थी और उनकी आत्मा ना जाने किस उपवन में विचरण कर रही थी।
भूख और बेबसी ही तो इन्हें शहर में काम करने के लिए लेकर आई नहीं तो अपने गांव में परिवार के साथ सुखी जीवन व्यतीत कर सकते थे। अगर पेट ना भरना होता तो कौन चाहता है की अपनों से दूर जाकर कोई काम करें। करोना वायरस कि इस महामारी में सारी दुनिया जीने और मरने की जद्दोजहद में लगी हुई है।

जिन मालिकों को इन मजदूरों ने अपनी कड़ी मेहनत से उन्हें आसमान तक पहुंचा दिया वे मजदूरों को कुछ दिन तक खाना ना दे सके। मजबूरन उन्हें अपने गांव वापस लौटने पर मजबूर होना पड़ा। किसी भी प्रकार की यातायात सेवा ना होने के कारण उन्हें पैदल यात्रा करनी पड़ी।

उपरोक्त पंक्ति में एक मजदूर अपनी वेदना व्यक्त करते हुए कहता है कि मेरी मां घर पर बैठकर सोच रही होगी कि काश मैं उसे शहर ही न जाने देती। अपनी इस भूल से बहुत पछतावा हो रहा होगा और मुझे याद करके रो रही होगी।

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