था वह युग मानवता का,
गज को गणेश बनाया था,
सिद्ध किया मानव अस्तित्व को,
पत्थर को पूज्य बनाया था।
सतयुग,द्वापर, त्रेतायुग में,
स्वार्थ मुक्त बलिदान था,
खेलते थे भरत सिंह से,
मानव जाति पर अभिमान था।
आ गया है घोर कलयुग,
प्रेम ,स्नेह का अंत हुआ,
छल,कपट,चोरी,बेईमानी,
मानव स्वभाव का अंग हुआ।
क्या कसूर था उस नन्हीं जान का,
जिसको कोख में है मार दिया,
देख ना पाई चलन जहां का,
मां का हृदय भी चीर दिया।
मर गए हैं जमीर सबके,
यह देख हृदय तड़पता है,
छेद हुआ मानवता की जड़ में,
छोड़ो, किसी को क्या फर्क पड़ता है।
Manavta ki hचर्चा:-यह कविता केरल की घटना से प्रेरित होकर लिखी गई है। जिस प्रकार एक गर्भवती हथिनी की हत्या की गई यह मानवता की हत्या ही कह लाएगी। मानव सभ्यता प्रकृति के साथ ही प्रारंभ हुई है और मानव को प्रकृति में जीव जंतुओं को भी हिस्सेदारी देनी पड़ेगी। मानव यदि प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करता है तो उसे इसकी सजा भुगतनी पड़ेगी। Manavta ki hatyaउपरोक्त पंक्तियों में यह बताया गया है कि किस प्रकार मानव का स्वभाव था कि वह हाथी को गणेश के समान मानता था परंतु अब केरल में उसी हाथी की हत्या कर दी गई। मानव का स्वभाव तो इतना सरल एवं सहज था कि वह पत्थर में भी भगवान देखता था। सतयुग द्वापर युग त्रेता युग सभी युगों में मानवता की एक सुखद झांकी देखने को मिलती है। वीर भरत जोकि शेर के साथ खेला करते थे इस प्रकार का रिश्ता था जीव जंतुओं से। अब इस कलयुग में प्रेम और स्नेह का तो कोई स्थान ही नहीं बचा। अब लोगों के अंदर छल कपट उसके एक अंग जैसा हो गया है। अब तो हमारे जमीर औरमानवता जैसे खत्म सी हो गई है। हमारे अंदर जीव जंतुओं के प्रति दीन भावना समाप्त सी हो गई है। हम जीव जंतुओं को बिना अपराध के ही मारते जा रहे हैं। हमारे अंदर उनके प्रति दया की भावना खत्म हो गई। वर्तमान समय में तो मानवता की हत्या कुछ इस प्रकार हो चुकी है कि मानव मानव की ही हत्याएं कर रहा है। अब तो किसी को कुछ फर्क ही नहीं पड़ता की कौन मर रहा है। या कौन मरने की परिस्थिति में है। अगर हमें किसी के बिना अपराध के मरने की खबर भी मिलती है तो हम उसे सोशल मीडिया पर डालकर शोक व्यक्त करके भूल जाते हैं। अब हमारा किसी के साथ वह लगाओ और वह व्यक्तित्व जिंदा ही नहीं रहा। मेरे इन कविताओं को भी जरूर पढ़ें- |
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