शुक्र है
बैठा है मेरे सामने,
पर मुझे उस पर यकीन नहीं,
सिर्फ घात ही तो लगाया है बस्ती में,
शुक्र है उजाड़ा अब तक कोई गांव नहीं।
अजब सन्नाटा है महफिल में शाम को,
लगता है फिर कोई चला शमशान को,
यूं तो वादा था चुभेंगे नहीं कंकड़ पैरों में,
पर शुक्र है मैं चलता कभी नंगे पांव नहीं।
नन्हीं आंखें देख रही हैं अपनी जननी को,
शायद वह छोटा दाना देंगी मुझको खाने को,
यूं तो तड़प कर मरते बहुतों को देखा भूख से,
पर शुक्र है मैं बना अभी तक लाश नहीं।
अब तो कत्लेआम हो रहा है सड़कों पर,
जैसे जानवर कटते हैं बूचड़खानो पर,
यूं तो कातिल बनते बहुतों को देखा जमाने में,
पर शुक्र है अभी मेरे हाथों में हथियार नहीं।
उठी है कलम तो घाव अंदर तक करेगी,
चाल कितनी भी चल लो यह फिर भी ना रुकेगी,
यूं तो काटे होंगे तुमने कितने शायरों के गर्दन,
पर अभी तक पढ़ा पाला मुझसे नहीं।
Wahhh gajab sir
जवाब देंहटाएंdhanyavaad
हटाएंV good
जवाब देंहटाएंthanks
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