मेरी यात्रा:-
होली आने वाली थी तो घर जाने के लिए मैंने दो महीने पहले ही स्लीपर क्लास ट्रेन टिकट बुक कर लिया। पैसा तो ज्यादा लगा पर उतना चलता है। बहुत दिनों बाद होली पर घर जाने का मौका मिला था। मेरे अंदर खुशी के गुब्बारे पहले से ही फूट रहे थे। ये दो महीना बीतने का नाम ही नहीं ले रहा था ऐसा लगता जैसे एक युग बीतने वाला है।
किसी तरह दो महीना बीत गया और वो दिन आ गया जब लोहपतगामिनी की सवारी करनी थी। सुबह से समझ नहीं आ रहा था कौन सा वस्त्र रखा जाए कौन सा नहीं। आखिर ये उलझन खत्म हुआ और बैग पैक हो गया। ट्रेन का समय नजदीक आ रहा था तो जल्दी जल्दी रूम लॉक किया और निकल गया दिल्ली मेट्रो की तरफ। शाम हो चुकी थी और ट्रेन का समय भी हो चुका था। मेट्रो में बैठे बैठे मन में उलझन के हिलोरे उठ रहे थे कि कहीं ट्रेन छूट न जाए। जैसे तैसे मैं स्टेशन पहुंच गया। भागते हुए प्लेटफार्म पहुंचा तो ट्रेन खड़ी हुई थी तब जाके मेरे मन को राहत मिली।
जैसा कि मैं पहले बता चुका हूं कि मेरी सीट पहले से ही बुक थी तो मैं सीधे अपने सीट पर बैठ गया। थोड़ी देर बाद अगल बगल के दृश्य पीछे जाने लगे और शरीर में कंपन होने लगा।
अजनबी साथी:-
अभी ट्रेन को चले हुए एक घंटा भी नहीं हुआ था कि एक भाई साहब बोले बहुत जल्दी में घर जाना था तो टिकट करा नहीं पाया । क्या आपके सीट पर थोड़ी देर के लिए बैठ जाऊं। भाई साहब की वाणी में इतनी विनम्रता और लाचारीपन देख मैं मना नहीं कर पाया। मुझे लगा कि जब मुझे सोना होगा तो उठा दूंगा।
दिल्ली की प्रदूषण वाली हवा के बाद इतनी स्वच्छ प्राकृतिक हवा जब शरीर को स्पर्श किया तो नीद कब आई पता ही नहीं चला।देर रात जब नीद खुली तो देखा भाई साहब पूरी तरह सीट पर कब्जा जमा चुके थे और निद्रा की आगोश में समाये हुए थे। मैंने भी उन्हें जगाना मुनासिब नहीं समझा।
आखिरकर सफ़र बीतता गया और लखनऊ से आगे निकल कर सुबह हो गया। भाई साहब उठे और बोले आपकी वजह से मेरा सफ़र बहुत सुखमय रहा। इतना सुनते ही जो गिला था वो भी खत्म हो गया। सोते जागते सफ़र खत्म हुआ और अयोध्या स्टेशन आ गया।
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