पंछी कूदे पल्लव पल्लव,
कागा भी टेरी लगाए,
भवन छोड़ निकली तितली सब,
लगता रोपण के दिन आए।
खेतन कामिनी लगी अकेले,
रोपत धान मुस्काए,
धोती जांघ बराबर बांधे,
सावन गीत गुनगुनाए।
बार-बार मराल के नयना,
अबला को देखत जाए,
हिला कपाल दाएं बाएं से,
टोली हो रहा चिढ़ाए।
मेंढक मेढ़ किनारे बैठा,
टर टर की बांग लगाए,
डर कर दुबकी मृगनयनी,
फिर पति को रही बुलाए।
रोपत धान दृश्य देखकर,
मन गदगद हुई जाए,
लगा किसान नित्य खेतन में,
उसका वही स्वर्ग कहलाए।
Kisan ke Ropan ke dinशब्दार्थ:-कामिनी-- स्त्री मराल--हंस पल्लव--पत्ता चर्चा:-kisanप्रस्तुत पंक्तियों में गांव के आषाढ़ महीने का वर्णन किया गया है। इस महीने में धान की रोपाई की जाती है। गांव में धान की रोपाई के लिए औरतों की टोली खेतों में काम करती है। पुरुष खेत को बराबर करने तथा रोपने योग्य बनाते हैं। उपरोक्त पंक्तियों में किस प्रकार एक अबला स्त्री खेत में धान की रोपाई करती है तथा उस समय का जो दृश्य है उसी का वर्णन किया गया है। धान की रोपाई करते समय आसपास विभिन्न प्रकार के जीव जंतु तथा पंछियों की कौतूहल रहती है। धान की रोपाई करते समय अबला अपनी धोती को भीगने से बचाने के लिए घुटनों तक बांध रखा है तथा मंद मंद मुस्कान के साथ धान की रोपाई कर रहे हैं। गांव में एक प्रकार की यह प्रथा है की धान की रोपाई के समय औरतें कजरी तथा सावन के गीत गाते हैं यह दृश्य बहुत ही मनमोहक लगता है। धान के खेत में बार-बार हंस उस स्त्री को देख रहा है तथा अपनी गर्दन हिला हिला कर उसे चिढ़ा रहा है। अबला मेंढक को देखकर डर सी जाती है। डर कर वह अपने पति को बुलाती है जो उसके वर्तमान समय के पालन हार हैं। पत्नी के लिए ससुराल में तो उसका पति ही सब कुछ होता है। सुख दुख हर परिस्थिति में पति ही उसका सहारा होता है। अंतिम पंक्तियों में यह दर्शाया गया है की किसान के लिए तो उसका खेत ही स्वर्ग के बराबर है। किसान दिन रात मेहनत करके मिट्टी से सोना उगाता है और वही सोना सभी के गले का हार बनती है। कृपया इस रचना को भी पढ़ें: |
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