उसूल और जिम्मेदारी के साथ जीना आसान नहीं होता,
धधकते हुए शोले पर चलकर घाव छुपाना पड़ता है,
यूं ही तालियां नहीं बजती मजलिस-ए-खास में,
गीली आंखों को सूखी रेत से सुखाना पड़ता है।
कुछ मनचाही ख्वाहिशों को दबाना पड़ता है,
कुछ रूठे हुए पेड़ों को मनाना पड़ता है,
नुकीले कांटो भरे रास्ते क्यों ना हो,
हमें मंजिल की तरफ बढ़ते जाना पड़ता है।
कुछ सुनकर अनसुना करना पड़ता है,
कुछ तीखे वार सहना पड़ता है,
गर घंटों मेहनत पर ठंडी राख मिले,
तो उसी राख में अग्नि जगाना पड़ता है।
मैंने यह दरिया पार कर लिया,
अब हर मंजिल आसान लगता है,
मैं भी बन सकता था इस भीड़ का हिस्सा,
पर मुझे मंच से बोलना अच्छा लगता है।
जिंदगी से जंग |
व्याख्या:-
प्रस्तुत पंक्तियों में कभी अपने जीवन के संघर्षों के बारे में वर्णन करता है। उपरोक्त पंक्तियों में कवि ने यह दर्शाया है कि जीवन में उसूल और जिम्मेदारी के साथ जीना सरल नहीं होता यह अत्यंत कठिन होता है। जिस प्रकार एक धड़कते हुए शोले पर चलना कठिन होता है उसी प्रकार जीवन में उसूल बनाकर जीना भी कठिन होता है।
समाज में यूं ही लोग तारीफ नहीं करते या तालिया नहीं बजाते उसके लिए आपको हर गम हर दुख को भूलकर निरंतर अपने जिम्मेदारी के पथ पर चलना पड़ता है।
विभिन्न प्रकार की ख्वाहिशों को दवा लेना पड़ता है क्योंकि हमारा उसूल हो सकता है उसकी इजाजत ना देता हो। हमें अपनी मंजिल प्राप्ति के लिए निरंतर चलते रहना है चाहे उस रास्ते पर कितने भी कांटे क्यों ना हो।
जिंदगी में बहुत बार तीखे वचनों एवं तिरस्कार का सामना करना पड़ता है परंतु व्यक्ति को उसके सामने झुकना नहीं है निरंतर अपने पथ पर चलते जाना है।
रचना की अंतिम पंक्तियों में कवि ने अपने व्यक्तिगत भाव को प्रकट किया है। वह कहना चाहता है कि मैं तो इन सभी कठिनाइयों पे जीत हासिल कर चुका हूं इसी वजह से मुझे अब कोई कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता। मैं भी इस भीड़ का हिस्सा बन सकता था जिसमें लोग बेपरवाह रहते हैं। परंतु मुझे मंच से संबोधित करना ही अच्छा लगता है।
Nice bhaiyaaa
जवाब देंहटाएंthanks
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